कोरोना से पहले भी फैली हैं कई महामारियां, लेकिन क्यों नहीं आई घरों में कैद होने की नौबत?


कोरोना वायरस दुनिया की पहली महामारी नहीं है। इससे पहले भी सार्स, स्वाइन फ्लू और इबोला जैसी महामारियों ने दुनिया को परेशान किया है लेकिन इन महामारियों से निपटने के लिए कभी लॉकडाउन नहीं करना पड़ा, जबकि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने में सबसे बड़ा हथियार लॉकडाउन ही साबित हो रहा है। कोरोना के संक्रमण को लेकर दुनिया की करीब आधी आबादी अपने घरों में कैद है।
पिछले दो दशकों में दुनिया के सामने आईं कई महामारियां


पिछले दो दशकों में इबोला, सार्स और स्वाइन फ्लू जैसी महामारियों से दुनिया को जूझना पड़ा है, लेकिन किसी भी महामारी में आर्थिक और सामाजिक तौर पर इतना प्रतिबंध कभी नहीं लगा, जबकि कोरोना के कारण अपने ही समाज और परिवार के सदस्यों से दूर रहना पड़ रहा है। अब सवाल यह है कि आखिर कोरोना में ही लॉकडाउन की जरूरत क्यों पड़ी है, इससे पहले फैली अन्य महामारियों में क्यों नहीं?
सार्स संक्रमण कोरोना जितना तेज नहीं था


साल 2002 के अंत में चीन में एक सांस की बीमारी का पता चला। 2003 में जांच हुई तो पता चला कि यह कोई आम बीमारी नहीं, बल्कि सार्स महामारी है। बता दें कि सार्स वायरस के अधिकतर लक्षण कोरोना जैसे ही थे। देखते-देखते दुनिया के 26 देशों में सार्स महामारी फैल गई। सार्स से करीब 8,098 लोग संक्रमित हुए और करीब 774 लोगों की जानें गई थीं। सार्स बीमारी भी कोरोना वायरस जैसे एक वायरस के कारण जानवरों से इंसान में फैली थी, लेकिन इसका प्रभाव उतना नहीं था। हालांकि सार्स से होने वाली मृत्यु दर 9.6 फीसदी थी जबकि कोरोना से मृत्यु दर 1.4 फीसदी है।


34 फीसदी था मर्स के कारण मृत्यु दर


मर्स वायरस भी काफी खतरनाक था। मर्स से होने वाली मौत का प्रतिशत 34 फीसदी था। जनवरी 2020 तक मर्स के 2,519 मामले सामने आए हैं जिनमें से 866 लोगों की मौत हो गई है। मर्स और सार्स कोरोना की तरह वैश्विक महामारी नहीं बन पाए, क्योंकि इनके संक्रमण की दर काफी कम थी। मर्स और सार्स किसी को छूने से नहीं फैलते थे, जबकि कोरोना के मामले में ऐसा नहीं है। मर्स और सार्स से संक्रमित व्यक्ति से संक्रमण इतना तेजी से नहीं फैलता था जितनी तेजी से कोरोना फैल रहा है। सार्स की बात करें तो इसे कोरोना वायरस का पूर्वज भी कहा जा रहा है।
स्वाइन फ्लू से हुई पांच लाख से अधिक लोगों की मौत


साल 2009 में स्वाइन फ्लू फैला था जिसे एच1एनए इंफ्लूएंजा का नया रूप कहा गया। स्वाइन फ्लू के कारण साल 2009 में पूरी दुनिया में करीब 5,75,400 लोगों की मौत हुई थी और एक अरब से अधिक लोगों के संक्रमित होने का अनुमान था। स्वाइन फ्लू कोरोना वायरस की तरह ही एक शख्स से दूसरे में आसानी से फैलता है। गौर करने वाली बात यह है कि कोरोना की तरह कई बार स्वाइन फ्लू के भी लक्षण नहीं दिखते थे। एक से दूसरे शख्स में स्वाइन फ्लू का संक्रमण दर 1.4 से 1.6 के बीच है जो कि कोरोना से बहुत की कम है। कोरोना का प्रति व्यक्ति संक्रमण दर 1.5-3.5 है।
इबोला के कारण हो जाती है औसतन 50 फीसदी लोगों की मौत


साल 2014-16 में इबोला दक्षिण अफ्रीका में फैला था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पश्चिमी अफ्रीका से फैली इस बीमारी से साल 2014-16 के बीच करीब 11,000 से अधिक लोगों की मौत हुई थी। इबोला से संक्रमित 50 फीसदी लोगों की मौत हो गई, हालांकि मर्स और सार्स की तरह इबोला भी आसानी से फैलता नहीं है। इबोला से संक्रमित व्यक्ति के कारण संक्रमण तब तक नहीं फैल सकता, जब तक उसमें इसके लक्षण दिखाई न दें। इबोला का संक्रमण, संक्रमित व्यक्ति के खून, पसीने, मूत्र और खांसी के दौरान निकलने वाले तरल पदार्थ से फैलता है। इबोला के लक्षण में भी कोरोना के लक्षण जैसे बुखार, उल्टी और दस्त जैसे लक्षण शामिल हैं।
अन्य महामारियों से कैसे अलग है कोरोना वायरस?


कोरोना के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि बिना लक्षण दिखे भी यह लोगों में फैल रहा है। कई रिपोर्ट्स में इसकी पुष्टि भी हुई है। ऐसे में कोरोना के साथ खतरा यह है कि कई लोग इससे संक्रमित हैं लेकिन लक्षण नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में जब तक उनमें लक्षण दिखने शुरू होते हैं तब तक कई अन्य लोगों में संक्रमण फैल चुका होता है। इसी वजह से कोरोना दुनिया में आए किसी भी अन्य वायरस के मुकाबले तेजी से फैल रहा है। ऐसे में कोरोना के संक्रमण को रोकने का एक ही रास्ता है और वह है सोशल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक दूरी। सोशल डिस्टेंसिंग के लिए ही दुनिया की आधी आबादी आज अपने ही घरों में कैद है।